'तारे जमीं
पर' फिल्म में
एक भला-सा
टीचर डाइस्लेक्सिया वाले
बच्चे को हीनता
के दबावों से
किसी तरह निकालकर
उसकी सापेक्षिक योग्यता
में उसे वापस
लाता है। लेकिन
असल जिन्दगी में
करोड़ों बच्चों को कौन
ला सकता है?
हरेक को पब्लिक
स्कूल का सौभाग्य
कहाँ है। कौन
जिम्मेदार है? ऐसे
सवाल पूछने से
बेहतर है कि
हम सरल-सा
सवाल अपने आप
से करें कि
हम अपने बच्चों
को क्या बना
रहे हैं? जो
हम नहीं बन
सके, हम उसे
वो बनाने पर
तुले हैं। आत्महत्या
यहीं से शुरू
हो जाती है।
बच्चे का मन
मर जाता है।
कुछ बच्चे अपने
मन की जगह
माता-पिता के
मन को पूरी
तरह अपना लेते
हैं जो नहीं
अपना पाते मर
जाते हैं। बच्चे
को अपने ढंग
से बनने का
अवसर दें, तो
शायद वह बेहतर
ढंग से चयन
कर सकता है।
उस पर माता-पिता सवारी
गाँठेंगे तो वह
क्या करेगा? एक
दिन कहेगा, तुम्हारी
है तुम ही
सँभालो ये दुनिया
!