जर्मनी में सवा लाख से ज्यादा ऐसे लोग रह रहे हैं, जिनके पास किसी देश की नागरिकता नहीं है। इसी वजह से उन्हें जर्मनी में भी कोई संवैधानिक अधिकार नहीं मिलते।
29 साल की क्रिस्टियाना बुकालो जर्मनी में पैदा हुई थीं, लेकिन वह किसी देश की नागरिक नहीं हैं। जर्मनी में क्रिस्टियाना जैसे और भी बहुत सारे लोग हैं, जिनके लिए रोजमर्रा की जिंदगी बेहद चुनौती भरी है। बैंक में खाता खुलवाने से लेकर होटल में बुकिंग करने, शादी करने, सिविल सेवाओं में करियर बनाने वगैरह के लिए सबको एक पहचान-पत्र की जरूरत होती है। लेकिन अगर आपके पास किसी देश की नागरिकता ही न हो, तो कौन सा देश आपको पासपोर्ट देगा?
डीडब्ल्यू से बातचीत में बुकालो बताती हैं, "आप आजादी से यात्रा नहीं कर सकते, क्योंकि इसके लिए 'ट्रैवल डॉक्यूमेंट' की जरूरत होती है। अगर हम कोई नौकरी करना चाहें, तो उसमें भी दिक्कत पेश आती है। मैं ऐसे भी लोगों को जानती हूं, जो अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए, क्योंकि आखिरकार परीक्षा देने के लिए उन्हें जन्म प्रमाण-पत्र दिखाना होता है. साथ ही, कोई नागरिकता न होने पर आपके पास वोट डालने का अधिकार भी नहीं होता है, भले ही उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी किसी एक जगह ही क्यों न बिताई हो।"
बुकालो पश्चिम अफ्रीकी माता-पिता की संतान हैं। जर्मनी का प्रशासन उनकी राष्ट्रीयता को सत्यापित नहीं कर पाया। जर्मनी में राज्य-विहीन लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है और बुकालो भी उनमें से एक हैं। अभी जर्मनी में सवा लाख से ज्यादा ऐसे लोग रह रहे हैं। इनमें से ज्यादातर फलिस्तीनी, कुर्द या पूर्व में सोवियत संघ और यूगोस्लाविया के नागरिक हैं। यानी ऐसे देश, जो आज की तारीख में अस्तित्व में नहीं हैं।
बुकालो को छोटी उम्र में ही नागरिकता न होने की पेचीदगी समझ आ गई थी। वह कहती हैं, "बचपन में भी आपको ऐसे संकेत मिलते हैं कि आप यहां से ताल्लुक नहीं रखते। आपको संकेत मिलते हैं कि आपको यहां नहीं होना चाहिए, लेकिन साथ ही आप यह जगह छोड़ भी नहीं सकते। ये बहुत ही सामान्य चीजें हैं, जो समस्या बन जाती हैं। चाहे छात्रों का आदान-प्रदान हो, विदेश में स्कीइंग की ट्रिप हो. इनमें से कुछ भी संभव नहीं है। जाहिर है कि इससे आप बहुत शर्मिंदगी महसूस करते हैं, क्योंकि आपसे कुछ ऐसा समझाने को कहा जाता है, जो आपको खुद कभी नहीं समझाया गया है।"
राज्य-विहीन लोगों की आवाज उठाता 'स्टेटफ्री'
दो साल पहले बुकालो ने राज्य-विहीन लोगों की आवाज उठाने का फैसला किया। उन्होंने म्यूनिख में 'स्टेटफ्री' नाम से एक मानवाधिकार संगठन स्थापित किया। इसका लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस समस्या से अवगत कराके प्रभावित लोगों को साथ लाना तो था ही। साथ ही, वह इस संगठन के जरिए सियासी नेतृत्व के सामने अपनी मांगें भी रख रही हैं।
बुकालो बताती हैं, "जर्मनी में लोगों के एक वर्ग के पास नागरिकता ना होने की समस्या लगातार बढ़ रही है, क्योंकि जर्मनी में पैदा होने वाले राज्य-विहीन बच्चों की मदद का कोई रास्ता नहीं निकाला गया है। हमारी मांग है कि जर्मनी में पैदा होने वाले राज्य-विहीन बच्चों को जर्मनी की नागरिकता पाने का अधिकार दिया जाए।"
जर्मनी में जन्म-स्थान के बजाय माता-पिता की स्थिति ज्यादा अहम है। अगर माता-पिता के पास किसी देश की नागरिकता नहीं है, तो बच्चे के पास भी कोई नागरिकता नहीं होती है। नतीजतन जर्मनी में जितने भी राज्य-विहीन लोग रह रहे हैं, उनमें से एक-तिहाई बच्चे हैं। हालांकि, बुकालो ऐसे लोगों को भी जानती हैं, जो करीब 65 साल के हो चुके हैं।ये लोग जर्मनी में ही पैदा हुए थे, लेकिन इतना जीवन बीत जाने के बाद भी इनके पास नागरिकता नहीं है।
जर्मनी में सोशल डेमोक्रेट (एसपीडी), ग्रीन्स और नियो-लिबरल फ्री डेमोक्रेट (एफडीपी) की साझा सरकार ने एक नए नागरिकता कानून का प्रस्ताव पेश किया है। 'स्टेटफ्री' को इस प्रस्ताव से बड़ी उम्मीदें हैं, लेकिन इस मसौदे में राज्य-विहीनता के मुद्दे पर अभी तक बात नहीं की गई है।
जर्मनी के गृहमंत्री के एक प्रवक्ता ने डीडब्ल्यू के सवाल के जवाब में कहा, "नागरिकता कानून में पहले से ही राज्य-विहीन लोगों की चिंताओं को पर्याप्त रूप से ध्यान में रखा गया है। इसके अलावा जर्मनी की नागरिकता हासिल करने के सामान्य नियम राज्य-विहीन लोगों पर लागू होते हैं, क्योंकि नागरिकता कानून की नजर से भी राज्य-विहीन लोग विदेशी हैं।"
यूरोप में एकीकरण के बजाय निर्वासन पर माथापच्ची
नए नागरिकता कानून के मसौदे में तेजी से देशीकरण करने और कुशल आप्रवासियों को प्रोत्साहन देने की बात कही गई है। यह मसौदा ऐसे वक्त आया है, जब प्रवासन पर बहस जर्मनी के राजनीतिक एजेंडे में भी शीर्ष पर है।
अपने अभियान को खास सफलता न मिलने से बुकालो बिल्कुल हैरान नहीं हैं. वह कहती हैं, "मैं समझती हूं कि एक ओर नेताओं को राज्य-विहीनता की कम जानकारी होना और दूसरी तरफ आम राजनीतिक परिस्थितियां इसके लिए जिम्मेदार हैं। जैसे यूरोप में दक्षिणपंथ की ओर रुझान बढ़ रहा है। जर्मनी की अधिक प्रगतिशील पार्टियों को उन कथित 'प्रगतिशील' मुद्दों के पक्ष में खड़े होने में कठिनाई हो रही है, जो स्पेन या पुर्तगाल जैसे देशों में लंबे समय से यथास्थिति का हिस्सा रहे हैं।"
कोई समान कानूनी प्रक्रिया नहीं
कोन्स्टांस यूनिवर्सिटी में मानव विज्ञान की प्रोफेसर जूडिथ बेयर को सात साल पहले राज्य-विहीनता के बारे में पता चला था। तब वह शोध से जुड़े एक दौरे पर म्यांमार में थीं, जहां सात लाख से ज्यादा रोहिंग्या मुस्लिम अल्पसंख्यक उत्पीड़न से बचकर भाग रहे थे। बेयर तभी से इस विषय पर और शोध कर रही हैं। ये रोहिंग्या मुस्लिम अब बांग्लादेश में रह रहे हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत इन्हें राज्य-विहीन माना जाता है।
ब्रिटेन की एक अदालत में जब राज्य-विहीन लोगों को शरण देने पर कार्रवाई हो रही होती है, तो बेयर उसमें एक विशेषज्ञ गवाह की हैसियत से शामिल होती हैं। डीडब्ल्यू से बातचीत में वह कहती हैं, "राज्य-विहीनता ऐसी समस्या है, जो जर्मनी के आम लोगों की निगाह में अभी तक नहीं है।"
उदाहरण के लिए न्यायपालिका ही ले लीजिए। जहां ब्रिटेन में बेयर जैसे विशेषज्ञ राज्य-विहीन लोगों की जिंदगियों और कहानियों की पड़ताल करते हैं और उनके मत को राज्य-विहीन लोगों पर लिए जाने वाले अंतिम फैसले में शामिल किया जाता है। वहीं जर्मनी में अक्सर इसका फैसला सिर्फ जज के हाथ में होता है।
साथ ही, जर्मनी में राज्य-विहीनता का निर्धारण करने के लिए कोई मानक प्रक्रिया भी नहीं है। यह नगर-पालिका के अधिकारियों पर निर्भर करता है। यानी कभी-कभी म्यूनिख में रहने वाले लोगों पर अलग फैसला होता है, लेकिन हैम्बुर्ग या कोलोन में रहने वाले लोगों पर अलग फैसला होता है।
बेयर कहती हैं, "मुख्य बात यह है कि यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है, जो फैसला सुना रहा है. बहुत सारे राज्य-विहीन लोग यही शिकायत करते रहते हैं कि कानूनन कोई निश्चितता नहीं है। ज्यादातर मौकों पर ये फैसले दुर्भावना से प्रेरित नहीं होते हैं, बल्कि ऐसा जानकारी के अभाव की वजह से होता है कि ऐसे लोगों के मामलों में क्या किया जाए।"
जर्मनी में बुकालो जैसे करीब 30 हजार लोग आधिकारिक रूप से राज्य-विहीन माने गए हैं। यानी 6 साल तक जर्मनी में रहने के बाद ये लोग देशीयकरण के लिए आवेदन कर सकते हैं। लेकिन, करीब एक लाख लोगों को अस्पष्ट राष्ट्रीयता की श्रेणी में रखा गया है। इनमें ऐसे शरणार्थी भी हैं, जिनके पास अपनी पहचान साबित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है। बिल्कुल बांग्लादेश से बाहर होने वाले रोहिंग्या लोगों की तरह।
एसपीडी के नेता सॉसन शिबली कहती हैं कि राज्यविहीन होना मानवाधिकारों का उल्लंघन है। शिबली बर्लिन में राज्य-विहीन फलिस्तीनी माता-पिता के घर पैदा हुईं। 15 साल की उम्र तक उनका देशीकरण नहीं हुआ था। बेयर भी मानती हैं कि राज्य-विहीन लोगों को प्रभावी रूप से अधिकार होने के अधिकार से वंचित रखा जाता है।