यह फेस्टिव
सीजन है। फेस्टिव
यानी उत्सवी उत्सव
मनाने का भाव
यानी समारोही आनन्द
का भाव! समारोही
भाव यानी जिसमें
सब आरोहित हो
सकें, वह भाव!
एक सामूहिक भाव!
ऐसे ही भाव
पॉपुलर कल्चर के अवसर
होते हैं। दीवाली
हो, ईद हो,
क्रिसमस हो, सब
में आनन्द का
निर्माण समान तत्त्व
होता है। आनन्द
का निर्माण, भावना
की आपूर्ति से
तय होता है।
भावना की आपूर्ति
उपभोग की आपूर्ति
से सम्बद्ध होती
है। और इस
बार उत्सवी सीजन
में मन्दी का
भाव है। स्टॉक
बाज़ार का बैठना,
हर ओर हिंसा
और असुरक्षा का
होना, अच्छे उठान
वाला बाजार नहीं
बनने देता। इस
बार के उत्सवी
सीजन पर इस
मन्दी भाव का
असर देखने को
मिला है।
दिल्ली में करोड़ों के बजट वाली सौ से ज्यादा रामलीलाएँ हुई हैं। पूरे देश में दसियों हजार रामलीलाएँ होती होंगी। पश्चिम बंगाल में हजारों पूजाएँ होती हैं। फिर भी उत्सव का मूड है, मगर महँगाई है, दाम बढ़े है। रिपोर्टों के अनुसार, रामलीलाओं में भीड़ें कमतर नजर आयी हैं। नयी पीढ़ी नहीं आ रही है। लीला कमजोर तबकों का, औरतों का मेला भर रह गया है। इसका सबका बड़ा कारण मन्दी, महंगाई और हिंसा की मार है।
ऐसे में पॉपुलर कल्चर क्या कर सकता है? क्या मन्दी में कोई कुछ कर सकता है? क्या निराशा में कोई पॉपुलर कल्चर हो भी सकता है? सामान्य उत्तर है कि नही हो सकता ।
मार्केटिंग के सरल नियम के अनुसार तो उदास वातावरण आनन्दोत्सव के निर्माण के लिए अच्छा वातावरण नहीं माना जाता। मन्दी मन को भी मन्दा करती है, अवसाद लाती है, निराशा बढ़ाती है। हताशाएँ चरम पर होती हैं। समाज में उत्साह की जगह अवसाद का राज्य होने लगता है। यह बताता है कि कल्चर का सम्बन्ध समाज की आर्थिकी से अनिवार्यता से जुड़ा होता है, लेकिन यह सिक्के का एक पहलू है। दूसरा पहलू इसके विपरीत भी हो सकता है। इतिहास गवाह है। निराशा में भी पॉपुलर कल्चर बना है। कल्चर्स ने निराशाओं को आशाओं में बदला है। यहाँ तक कि ठण्डे बाजार में उत्साह पैदा किया है। रुके चक्के को चालू किया है।
पश्चिमी पॉपुलर कल्चर का इतिहास इसका गवाह है। कहीं न कहीं अपने पॉपुलर कल्चर का इतिहास भी ऐसी गवाही दे सकता है। पश्चिम में, खास कर अमेरिका में जब पिछली सदी में उन्नीस सौ उन्तीस-तीस में महामन्दी छायी तो निराशाएँ बढ़ीं। कारोबार बाजार ठप्प हो गये। जीवन निराशामय हो गया। तब वहाँ के कॉर्पोरेट मालिकों ने, मीडिया के मालिकों ने, हॉलीवुड और विज्ञापन उद्योग के मालिकों ने गहन विचार किया कि क्या इस मन्दी से उबरने के लिए पॉपुलर कल्चर के रूपों यथा फिल्मी, नाच-गानों, विज्ञापनों को सक्रिय किया जा सकता है। और ऐसा किया गया। निराशा से आशा की ओर लाने वाले संदेश आदमी की जरूरतों से जोड़कर दिये जाने लगे। उत्साह का संचार करने वाले विज्ञापन दिये जाने लगे। कल्चर का रुख आदमी की जरूरतों को उसके जीवन से जोड़कर अन्ततः उसमें आनन्दभाव पैदा करने की ओर उन्मुख हुआ और देखते-देखते उत्साह का वातावरण बना। अमेरिकी विज्ञापन उद्योग और हॉलीवुड का इतिहास इस बात की गवाही देता है। अपने इतिहास में आनन्द के निर्माण पॉपुलर कल्चर के निर्माण और उसके सामाजिक सम्बन्ध पर इस तरह के शोध नहीं हुए हैं, लेकिन ऐसे ऐतिहासिक दौरों की कल्पना की जा सकती है, जब घोर निराशाओं के बीच भी आनन्द के निर्माण में पॉपुलर कल्चर ने अपनी भूमिका निभायी हो ।
इस बार का कुछ उत्सवी सीजन ठण्डा है कॉर्पोरेट या सरकारें इस तरह के भाव मूलक सामाजिक सरोकार अपने एजेण्डे पर नहीं रखते। कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी को कुछ मानते हैं, कुछ नहीं मानते। जो मानते हैं वे एड्स जनशिक्षण की बात ज्यादा करते हैं। वे समाज के भाव निर्माण के लिए अम्बानीज फिल्म में पैसा लगाएँगे, लेकिन उनमें क्या 'भाव-निर्माण' होगा, उसके बारे में बहुत बारीकी से नहीं सोचेंगे। पैसा कमाना एक मात्र उद्देश्य होगा। कॉर्पोरेट की इस वातावरण को दूर करने में एक भूमिका हो सकती है, इस बात का प्रमाण नहीं मिलता, जबकि मिलना चाहिए। विज्ञापनों में नये उपयोगी प्रयोग नहीं मिलते। अभावग्रस्त सीमित समाज के सिकुड़े हुए बाजार में सिर्फ सेक्स अपील कर चीज बेचने का संदेश, नासमझी ही कही जा सकती है।
पॉपुलर कल्चर इस मन्दी को पलटने में एक बड़ी भूमिका निभा सकती है। बशर्ते उससे जुड़े लोग अपनी जिम्मेदारी समझें।